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असृ॑ग्रमिन्द्र ते॒ गिरः॒ प्रति॒ त्वामुद॑हासत। अजो॑षा वृष॒भं पति॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asṛgram indra te giraḥ prati tvām ud ahāsata | ajoṣā vṛṣabham patim ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

असृ॑ग्रम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। गिरः॑। प्रति॑। त्वाम्। उद्। अ॒हा॒स॒त॒। अजो॑षाः। वृ॒ष॒भम्। पति॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:9» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमेश्वर ! जो (ते) आपकी (गिरः) वेदवाणी हैं, वे (वृषभम्) सब से उत्तम सब की इच्छा पूर्ण करनेवाले (पतिम्) सब के पालन करनेहारे (त्वाम्) वेदों के वक्ता आप को (उदहासत) उत्तमता के साथ जनाती हैं, और जिन वेदवाणियों को आप (अजोषाः) सेवन करते हो, उन्ही से मैं भी (प्रति) उक्त गुणयुक्त आपको (असृग्रम्) अनेक प्रकार से वर्णन करता हूँ॥४॥
भावार्थभाषाः - जिस ईश्वर ने प्रकाश किये हुए वेदों से जैसे अपने-अपने स्वभाव गुण और कर्म प्रकट किये हैं, वैसे ही वे सब लोगों को जानने योग्य हैं, क्योंकि ईश्वर के सत्य स्वभाव के साथ अनन्तगुण और कर्म हैं, उनको हम अल्पज्ञ लोग अपने सामर्थ्य से जानने को समर्थ नहीं हो सकते। तथा जैसे हम लोग अपने-अपने स्वभाव गुण और कर्मों को जानते हैं, वैसे औरों को उनका यथावत् जानना कठिन होता है, इसी प्रकार सब विद्वान् मनुष्यों को वेदवाणी के विना ईश्वर आदि पदार्थों को यथावत् जानना कठिन है। इसलिये प्रयत्न से वेदों को जान के उन के द्वारा सब पदार्थों से उपकार लेना तथा उसी ईश्वर को अपना इष्टदेव और पालन करनेहारा मानना चाहिये॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्सोऽर्थ उपदिश्यते।

अन्वय:

हे इन्द्र परमेश्वर ! यास्ते तव गिरो वृषभं पतिं त्वामुदहासत यास्त्वमजोषाः सर्वा विद्या जुषसे ताभिरहमपि प्रतीत्थंभूतं वृषभं पतिं त्वामसृग्रं सृजामि॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (असृग्रम्) सृजामि विविधतया वर्णयामि। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०७.१.८) अनेन ‘सृज’ धातो रुडागमः। वर्णव्यत्ययेन जकारस्थाने गकारः, लडर्थे लङ् च। (इन्द्र) सर्वथा स्तोतव्य ! (ते) तव (गिरः) वेदवाण्यः (प्रति) इन्द्रियागोचरेऽर्थे। प्रतीत्यैतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (त्वाम्) वेदवक्तारं परमेश्वरम् (उदहासत) उत्कृष्टतया ज्ञापयन्ति। अत्र ओहाङ् गतावित्यस्माल्लडर्थे लुङ्। (अजोषाः) जुषसे। अत्र छन्दस्युभयथेत्यार्धधातुकसंज्ञाश्रयाल्लघूपधगुणः। छान्दसो वर्णलोपो वेति थासस्थकारस्य लोपेनेदं सिध्यति। (वृषभम्) सर्वाभीष्टवर्षकम् (पतिम्) पालकम्॥४॥
भावार्थभाषाः - येनेश्वरेण स्वप्रकाशितेन वेदेन यादृशानि स्वस्वभावगुणकर्माणि प्रकाशितानि तान्यस्माभिस्तथैव वेद्यानि सन्ति। कुतः, ईश्वरस्यानन्तसत्यस्वभावगुणकर्मवत्त्वादल्पज्ञैरस्माभिर्जीवैः स्वसामर्थ्येन तानि ज्ञातुमशक्यत्वात्। यथा स्वयं स्वस्वभावगुणकर्माणि जानाति तथाऽन्यैर्यथावज्ज्ञातुमशक्यानि भवन्ति। अतः सर्वैर्विद्वद्भिर्वेदवाण्यैवेश्वरादयः पदार्थाः सम्प्रीत्या पुरुषार्थेन च वेदितव्याः सन्ति, तेभ्य उपकारग्रहणं चेति। स एवेश्वर इष्टः पालकश्च मन्तव्य इति॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या ईश्वराने वेदाद्वारे आपले गुण, कर्म, स्वभाव प्रकट केलेले आहेत, ते सर्व लोकांनी जाणले पाहिजेत. कारण ईश्वराच्या अनन्त सत्य गुण कर्म स्वभावाला आम्ही अल्पज्ञ लोक आपल्या सामर्थ्याने जाणू शकत नाही. जसे आम्ही आपापले गुण कर्म स्वभाव जाणतो तसे इतरांनी ते जाणणे कठीण आहे. त्याचप्रकारे विद्वान माणसांना वेदवाणीशिवाय ईश्वर इत्यादी पदार्थांना यथार्थपणे जाणणे कठीण आहे. त्यासाठी प्रयत्नपूर्वक वेदांना जाणून त्याद्वारे सर्व पदार्थांचा योग्य उपयोग करून ईश्वराला आपला इष्टदेव व पालनकर्ता मानले पाहिजे. ॥ ४ ॥